चार हज़ार को भोजन खिलाना1 उन्हीं दिनों में जब फिर से एक बड़ी भीड़ एकत्र हो गई और उनके पास खाने के लिए कुछ न था, तब यीशु ने शिष्यों को पास बुलाकर उनसे कहा, 2 “मुझे इस भीड़ पर तरस आता है क्योंकि ये लोग तीन दिन से मेरे साथ हैं और उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है। 3 यदि मैं उन्हें भूखा घर भेज दूँ तो वे मार्ग में ही मूर्च्छित हो जाएँगे; इनमें से कुछ लोग तो बहुत दूर से आए हैं।” 4 इस पर उसके शिष्यों ने उससे कहा, “यहाँ इस जंगल में इन्हें तृप्त करने के लिए इतनी रोटियाँ कोई कहाँ से ला पाएगा?” 5 उसने उनसे पूछा,“तुम्हारे पास कितनी रोटियाँ हैं?” उन्होंने कहा, “सात।” 6 तब उसने भीड़ को भूमि पर बैठने की आज्ञा दी, और उन सात रोटियों को लेकर धन्यवाद देते हुए तोड़ा और अपने शिष्यों को देता गया कि वे उन्हें परोसें और उन्होंने भीड़ को परोस दिया। 7 उनके पास कुछ छोटी मछलियाँ भी थीं; और उसने उन पर आशिष माँगकर उन्हें भी परोसने को कहा। 8 वे खाकर तृप्त हो गए, और उन्होंने बचे हुए टुकड़ों से भरे सात टोकरे उठाए। 9 वे लगभग चार हज़ार लोग थे। फिर उसने उनको विदा किया 10 और वह तुरंत अपने शिष्यों के साथ नाव पर चढ़कर दलमनूता के क्षेत्र को चला गया। स्वर्गीय चिह्न की माँग11 तब फरीसी आकर उससे वाद-विवाद करने लगे और उसे परखने के लिए उससे स्वर्ग का कोई चिह्न माँगा। 12 परंतु उसने अपनी आत्मा में गहरी आह भरते हुए कहा,“इस पीढ़ी के लोग चिह्न क्यों माँगते हैं? मैं तुमसे सच कहता हूँ कि इस पीढ़ी के लोगों को कोई चिह्न नहीं दिया जाएगा।” 13 और वह उन्हें छोड़कर फिर नाव पर चढ़ा और उस पार चला गया। फरीसियों और हेरोदेस के ख़मीर से सावधान14 शिष्य रोटी ले जाना भूल गए थे और नाव में उनके पास एक रोटी को छोड़ और कुछ नहीं था। 15 तब यीशु ने उन्हें चेतावनी देते हुए कहा,“देखो! फरीसियों के ख़मीर और हेरोदेस के ख़मीर से सावधान रहो।” 16 फिर वे आपस में सोच विचार करने लगे कि उनके पास रोटी नहीं है। 17 यह जानकर उसने उनसे कहा,“तुम आपस में सोच विचार क्यों कर रहे हो कि तुम्हारे पास रोटी नहीं है? क्या तुम अब भी नहीं जानते और न ही समझते हो? क्या तुम्हारा मन कठोर हो चुका है? 18 क्या तुम आँखें होते हुए भी नहीं देखते और कान होते हुए भी नहीं सुनते? क्या तुम्हें स्मरण नहीं? 19 जब मैंने पाँच हज़ार के बीच में पाँच रोटियाँ तोड़ीं तो तुमने टुकड़ों से भरी कितनी टोकरियाँ उठाईं?” उन्होंने उससे कहा, “बारह।” 20 “और जब चार हज़ार के बीच में सात रोटियाँ थीं तो तुमने टुकड़ों से भरे कितने टोकरे उठाए?” उन्होंने उससे कहा, “सात।” 21 तब उसने उनसे कहा,“क्या तुम अब भी नहीं समझे?” अंधे व्यक्ति को दृष्टिदान22 फिर वे बैतसैदा आए। तब लोग एक अंधे व्यक्ति को उसके पास ले आए और उससे विनती करने लगे कि वह उसे छुए। 23 वह उस अंधे व्यक्ति का हाथ पकड़कर उसे गाँव के बाहर ले गया, उसकी आँखों पर थूका और उसके ऊपर हाथ रखकर उससे पूछा,“क्या तुझे कुछ दिखाई देता है?” 24 उसने आँखें उठाकर कहा, “मैं लोगों को देखता हूँ, वे मुझे चलते हुए पेड़ों के समान दिखाई दे रहे हैं।” 25 उसने दुबारा अपने हाथ उसकी आँखों पर रखे। जब उस अंधे व्यक्ति ने ध्यान से देखा, तो वह फिर से देखने लगा और उसे सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा था। 26 तब यीशु ने यह कहकर उसे घर भेजा,“इस गाँव में प्रवेश मत करना।” पतरस का यीशु को मसीह मानना27 यीशु और उसके शिष्य कैसरिया फिलिप्पी के गाँवों में गए। मार्ग में वह अपने शिष्यों से पूछने लगा,“लोग क्या कहते हैं कि मैं कौन हूँ?” 28 उन्होंने उसे उत्तर दिया, “यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला; पर कुछ लोग एलिय्याह, और कुछ लोग भविष्यवक्ताओं में से एक कहते हैं।” 29 उसने उनसे पूछा,“परंतु तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?” पतरस ने उसे उत्तर दिया, “तू मसीह है।” 30 तब उसने उन्हें चेतावनी दी कि वे उसके विषय में किसी को न बताएँ। यीशु द्वारा अपनी मृत्यु और पुनरुत्थान की प्रथम भविष्यवाणी31 फिर वह उन्हें सिखाने लगा कि मनुष्य के पुत्र के लिए अवश्य है कि वह बहुत दुःख उठाए; धर्मवृद्धों, मुख्य याजकों और शास्त्रियों द्वारा ठुकराया जाए, मार डाला जाए और तीन दिन के बाद फिर जी उठे। 32 वह यह बात स्पष्ट रूप से बता रहा था। तब पतरस उसे अलग ले जाकर झिड़कने लगा। 33 परंतु उसने मुड़कर अपने शिष्यों की ओर देखते हुए पतरस को झिड़का और कहा,“हे शैतान, मुझसे दूर हो जा! क्योंकि तू परमेश्वर की नहीं बल्कि मनुष्यों की बातों पर मन लगाता है।” यीशु के पीछे चलने का अर्थ34 फिर उसने अपने शिष्यों समेत भीड़ को अपने पास बुलाया और उनसे कहा,“यदि कोई मेरे पीछे आना चाहता है, तो वह अपने आप का इनकार करे, अपना क्रूस उठाए और मेरे पीछे हो ले; 35 क्योंकि जो कोई अपना प्राण बचाना चाहेगा, वह उसे गँवाएगा; परंतु जो कोई मेरे और सुसमाचार के कारण अपना प्राण गँवाएगा, वह उसे बचाएगा। 36 क्योंकि मनुष्य यदि सारे जगत को प्राप्त कर ले परंतु अपने प्राण की हानि उठाए तो उसे क्या लाभ होगा? 37 या मनुष्य अपने प्राण के बदले क्या देगा? 38 इस व्यभिचारी और पापी पीढ़ी में यदि कोई मुझसे और मेरे वचनों से लजाएगा, तो मनुष्य का पुत्र भी जब पवित्र स्वर्गदूतों के साथ अपने पिता की महिमा में आएगा, उससे लजाएगा।” |