उन्होंने उससे कहा, “क्योंकि वे निर्दय थे इसलिए वह उन्हें बेरहमी से मार डालेगा और अंगूरों के बगीचे को दूसरे किसानों को बटाई पर दे देगा जो फसल आने पर उसे उसका हिस्सा देंगें।”
किन्तु पौलुस और बरनाबास ने निडर होकर कहा, “यह आवश्यक था कि परमेश्वर का वचन पहले तुम्हें सुनाया जाता किन्तु क्योंकि तुम उसे नकारते हो तथा तुम अपने आपको अनन्त जीवन के योग्य नहीं समझते, सो हम अब गैर यहूदियों की ओर मुड़ते हैं।
तो मैं पूछता हूँ, “क्या परमेश्वर ने अपने ही लोगों को नकार नहीं दिया?” निश्चय ही नहीं। क्योंकि मैं भी एक इस्राएली हूँ, इब्राहीम के वंश से और बिन्यामीन के गोत्र से हूँ।
सो मैं कहता हूँ क्या उन्होंने इसलिए ठोकर खाई कि वे गिर कर नष्ट हो जायें? निश्चय ही नहीं। बल्कि उनके गलती करने से ग़ैर यहूदी लोगों को छुटकारा मिला ताकि यहूदियों में स्पर्धा पैदा हो।
निश्चय ही नहीं, यदि हर कोई झूठा भी है तो भी परमेश्वर सच्चा ठहरेगा। जैसा कि शास्त्र में लिखा है: “ताकि जब तू कहे तू उचित सिद्ध हो और जब तेरा न्याय हो, तू विजय पाये।”
तो फिर क्या इसका यह अर्थ है कि जो उत्तम है, वही मेरी मृत्यु का कारण बना? निश्चय ही नहीं। बल्कि पाप उस उत्तम के द्वारा मेरे लिए मृत्यु का इसलिए कारण बना कि पाप को पहचाना जा सके। और व्यवस्था के विधान के द्वारा उसकी भयानक पापपूर्णता दिखाई जा सके।
तो फिर हम क्या कहें? क्या हम कहें कि व्यवस्था पाप है? निश्चय ही नहीं। जो भी हो, यदि व्यवस्था नहीं होती तो मैं पहचान ही नहीं पाता कि पाप क्या है? यदि व्यवस्था नहीं बताती, “जो अनुचित है उसकी चाहत मत करो” तो निश्चय ही मैं पहचान ही नहीं पाता कि अनुचित इच्छा क्या है।
किन्तु यदि हम जो यीशु मसीह में अपनी स्थिति के कारण धर्मी ठहराया जाना चाहते हैं, हम ही विधर्मियों के समान पापी पाये जायें तो इसका अर्थ क्या यह नहीं है कि मसीह पाप को बढ़ावा देता है। निश्चय ही नहीं।
क्या इसका यह अर्थ है कि व्यवस्था का विधान परमेश्वर के वचन का विरोधी है? निश्चित रूप से नहीं। क्योंकि यदि ऐसी व्यवस्था का विधान दिया गया होता जो लोगों में जीवन का संचार कर सकता तो वह व्यवस्था का विधान ही परमेश्वर के सामने धार्मिकता को सिद्ध करने का साधन बन जाता।