सत्तर का भेजा जाना1 इन बातों के बाद प्रभु ने सत्तर अन्य व्यक्तियों को नियुक्त किया, और उन्हें दो-दो करके अपने आगे हर उस नगर और स्थान पर भेजा, जहाँ वह स्वयं जाने पर था। 2 यीशु ने उनसे कहा :“फसल तो बहुत है, परंतु मज़दूर थोड़े हैं; इसलिए फसल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फसल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे। 3 जाओ; देखो, मैं तुम्हें मेमनों के समान भेड़ियों के बीच में भेजता हूँ। 4 तुम न तो बटुआ और न थैला और न जूते लेना और न ही मार्ग में किसी को नमस्कार करना। 5 जिस किसी घर में तुम प्रवेश करो, पहले कहो, ‘इस घर में शांति हो।’ 6 यदि वहाँ कोई शांति का पात्र होगा, तो तुम्हारी शांति उस पर ठहर जाएगी; नहीं तो तुम्हारे पास लौट आएगी। 7 तुम उसी घर में रहो, और जो उनसे मिले वही खाओ और पीओ, क्योंकि मज़दूर को अपनी मज़दूरी मिलनी चाहिए। घर-घर मत फिरना। 8 जिस किसी नगर में तुम जाओ और वहाँ के लोग तुम्हारा स्वागत करें, तो जो कुछ तुम्हारे सामने परोसा जाए, उसे खाओ, 9 और वहाँ के बीमारों को स्वस्थ करो, और उनसे कहो, ‘परमेश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है।’ 10 परंतु जिस किसी नगर में तुम जाओ और वहाँ के लोग तुम्हें ग्रहण न करें, तो उसकी गलियों में जाकर कहो, 11 ‘हम तुम्हारे नगर की धूल को भी, जो हमारे पैरों में लगी है, तुम्हारे सामने झाड़ देते हैं; परंतु तुम यह जान लो कि परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है।’ 12 मैं तुमसे कहता हूँ कि उस दिन सदोम की दशा उस नगर से अधिक सहनीय होगी। 13 “हे खुराजीन! तुझ पर हाय; हे बैतसैदा! तुझ पर हाय; क्योंकि जो सामर्थ्य के कार्य तुममें किए गए, यदि सूर और सैदा में किए जाते, तो बहुत पहले ही वे टाट ओढ़कर और राख पर बैठकर पश्चात्ताप कर लेते। 14 जैसा भी हो, न्याय के दिन सूर और सैदा की दशा तुमसे अधिक सहनीय होगी। 15 और तू, हे कफरनहूम, क्या तुझे स्वर्ग तक ऊँचा उठाया जाएगा? तू तो अधोलोक तक नीचे उतारा जाएगा। 16 “जो तुम्हारी सुनता है, वह मेरी सुनता है, और जो तुम्हें अस्वीकार करता है, वह मुझे अस्वीकार करता है; और जो मुझे अस्वीकार करता है, वह मेरे भेजनेवाले को अस्वीकार करता है।” सत्तर का लौटना17 वे सत्तर आनंद के साथ लौटे और कहने लगे, “प्रभु, तेरे नाम से तो दुष्टात्माएँ भी हमारे अधीन हो जाती हैं।” 18 इस पर यीशु ने उनसे कहा,“मैं देख रहा था कि शैतान बिजली के समान आकाश से गिरा। 19 देखो, मैंने तुम्हें साँपों और बिच्छुओं को रौंदने का और शत्रु की सारी शक्ति पर अधिकार दिया है; और तुम्हें किसी से कुछ भी हानि न होगी। 20 फिर भी इस बात से आनंदित मत होना कि आत्माएँ तुम्हारे अधीन हो जाती हैं, परंतु इससे आनंदित होना कि तुम्हारे नाम स्वर्ग में लिखे हैं।” यीशु का पवित्र आत्मा में मगन होना21 उसी घड़ी यीशु ने पवित्र आत्मा में मगन होकर कहा,“हे पिता, स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु, मैं तेरी स्तुति करता हूँ, क्योंकि तूने इन बातों को बुद्धिमानों और समझदारों से छिपाया और बच्चों पर प्रकट किया है; हाँ पिता, क्योंकि तेरी दृष्टि में यही अच्छा था। 22 मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है, और पिता को छोड़ कोई नहीं जानता कि पुत्र कौन है; और न ही पुत्र और जिस पर पुत्र प्रकट करना चाहे उसको छोड़ कोई जानता है कि पिता कौन है।” 23 फिर उसने शिष्यों की ओर मुड़कर अकेले में कहा,“धन्य हैं वे आँखें जो उन बातों को देख रही हैं जिन्हें तुम देखते हो। 24 क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ कि जो तुम देखते हो उसे बहुत से भविष्यवक्ताओं और राजाओं ने देखना चाहा, परंतु नहीं देखा, और जो तुम सुनते हो, उसे सुनना चाहा, परंतु नहीं सुना।” अच्छे सामरी का दृष्टांत25 और देखो, एक व्यवस्थापक उसकी परीक्षा लेने के लिए खड़ा हुआ, और कहने लगा, “हे गुरु, अनंत जीवन का उत्तराधिकारी होने के लिए मैं क्या करूँ?” 26 उसने उससे कहा,“व्यवस्था में क्या लिखा है? तू उसे कैसे पढ़ता है?” 27 उसने उत्तर दिया, “तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने संपूर्ण मन और अपने संपूर्ण प्राण और अपनी संपूर्ण शक्ति और अपनी संपूर्ण बुद्धि से प्रेम रखना, और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रखना।” 28 अतः यीशु ने उससे कहा,“तूने ठीक उत्तर दिया; यही कर तो तू जीवित रहेगा।” 29 परंतु अपने आपको धर्मी ठहराने की इच्छा से उसने यीशु से कहा, “तो मेरा पड़ोसी कौन है?” 30 इस पर यीशु ने कहा :“एक मनुष्य यरूशलेम से यरीहो को जा रहा था कि डाकुओं ने उसे घेर लिया, और उसके वस्त्र छीनकर उसे मारा-पीटा और अधमरा छोड़कर चले गए। 31 संयोग से एक याजक उसी मार्ग से जा रहा था, परंतु जब उसने उसे देखा तो कतराकर चला गया; 32 इसी प्रकार एक लेवी भी उस स्थान पर आया और जब उसे देखा तो कतराकर चला गया। 33 फिर एक सामरी यात्री उसके पास से निकला और जब उसे देखा तो उसने तरस खाया, 34 और उसके पास गया और उसके घावों पर तेल और दाखरस डालकर पट्टियाँ बाँधीं, तथा उसे अपनी सवारी पर चढ़ाकर एक सराय में ले गया और उसकी देखभाल की। 35 अगले दिन उसने दो दीनार निकालकर सराय के मालिक को दिए और कहा, ‘इसकी देखभाल करना, और इससे अधिक जो भी तेरा लगेगा, मैं अपने लौटने पर तुझे चुका दूँगा।’ 36 अब तेरे विचार से इन तीनों में से उस व्यक्ति का, जो डाकुओं के हाथ पड़ गया था, पड़ोसी कौन हुआ?” 37 उसने कहा, “वही, जिसने उस पर दया की।” यीशु ने उससे कहा,“जा और तू भी ऐसा ही कर।” मार्था और मरियम38 जब वे जा रहे थे तो यीशु ने एक गाँव में प्रवेश किया, और मार्था नामक एक स्त्री ने अपने घर में उसका स्वागत किया। 39 उसकी मरियम नामक एक बहन थी, वह प्रभु के चरणों में बैठकर उसका वचन सुनने लगी। 40 परंतु मार्था बहुत सेवा करते-करते विचलित हो गई, और पास आकर कहने लगी, “प्रभु, क्या तुझे यह ध्यान नहीं कि मेरी बहन ने मुझे सेवा करने के लिए अकेला छोड़ दिया? इसलिए उससे कह कि मेरी सहायता करे।” 41 इस पर प्रभु ने उससे कहा,“मार्था, मार्था, तू बहुत सी बातों की चिंता करती है और घबरा जाती है, 42 परंतु एक बात आवश्यक है; और मरियम ने उस उत्तम भाग को चुन लिया है जो उससे छीना नहीं जाएगा।” |