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عبرانیوں 9:9 - किताबे-मुक़द्दस

9 यह मजाज़न मौजूदा ज़माने की तरफ़ इशारा है। इसका मतलब यह है कि जो नज़राने और क़ुरबानियाँ पेश की जा रही हैं वह परस्तार के ज़मीर को पाक-साफ़ करके कामिल नहीं बना सकतीं।

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اُردو ہم عصر ترجُمہ

9 وہ خیمہ مَوجُودہ زمانے کے لیٔے ایک مثال ہے اَور یہ ظاہر کرتا ہے کہ جو نذریں اَور قُربانیاں وہاں پیش کی جاتی ہیں وہ عبادت کرنے والے کے ضمیر کو پاک صَاف کرکے کامل نہیں بنا سکتیں۔

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کِتابِ مُقادّس

9 وہ خَیمہ مَوجُودہ زمانہ کے لِئے ایک مِثال ہے اور اِس کے مُطابِق اَیسی نذریں اور قُربانِیاں گُذرانی جاتی تِھیں جو عِبادت کرنے والے کو دِل کے اِعتبار سے کامِل نہیں کر سکتِیں۔

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ہولی بائبل کا اردو جیو ورژن

9 یہ مجازاً موجودہ زمانے کی طرف اشارہ ہے۔ اِس کا مطلب یہ ہے کہ جو نذرانے اور قربانیاں پیش کی جا رہی ہیں وہ پرستار کے ضمیر کو پاک صاف کر کے کامل نہیں بنا سکتیں۔

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عبرانیوں 9:9
16 حوالہ جات  

यह पानी उस बपतिस्मे की तरफ़ इशारा है जो इस वक़्त आपको नजात दिलाता है। इससे जिस्म की गंदगी दूर नहीं की जाती बल्कि बपतिस्मा लेते वक़्त हम अल्लाह से अर्ज़ करते हैं कि वह हमारा ज़मीर पाक-साफ़ कर दे। फिर यह आपको ईसा मसीह के जी उठने से नजात दिलाता है।


अब इनसानों में से चुने गए इमामे-आज़म को इसलिए मुक़र्रर किया जाता है कि वह उनकी ख़ातिर अल्लाह की ख़िदमत करे, ताकि वह गुनाहों के लिए नज़राने और क़ुरबानियाँ पेश करे।


ताहम आदम से लेकर मूसा तक मौत की हुकूमत जारी रही, उन पर भी जिन्होंने आदम की-सी हुक्मअदूली न की। अब आदम आनेवाले ईसा मसीह की तरफ़ इशारा था।


इब्राहीम ने सोचा, “अल्लाह मुरदों को भी ज़िंदा कर सकता है,” और मजाज़न उसे वाक़ई इसहाक़ मुरदों में से वापस मिल गया।


हर इमाम रोज़ बरोज़ मक़दिस में खड़ा अपनी ख़िदमत के फ़रायज़ अदा करता है। रोज़ाना और बार बार वह वही क़ुरबानियाँ पेश करता रहता है जो कभी भी गुनाहों को दूर नहीं कर सकतीं।


क्योंकि मसीह सिर्फ़ इनसानी हाथों से बने मक़दिस में दाख़िल नहीं हुआ जो असली मक़दिस की सिर्फ़ नक़ली सूरत थी बल्कि वह आसमान में ही दाख़िल हुआ ताकि अब से हमारी ख़ातिर अल्लाह के सामने हाज़िर हो।


अगर लावी की कहानत (जिस पर शरीअत मबनी थी) कामिलियत पैदा कर सकती तो फिर एक और क़िस्म के इमाम की क्या ज़रूरत होती, उस की जो हारून जैसा न हो बल्कि मलिके-सिद्क़ जैसा?


तो क्या इसका मतलब यह है कि शरीअत अल्लाह के वादों के ख़िलाफ़ है? हरगिज़ नहीं! अगर इनसान को ऐसी शरीअत मिली होती जो ज़िंदगी दिला सकती तो फिर सब उस की पैरवी करने से रास्तबाज़ ठहरते।


अगर यह दुनिया में होता तो इमामे-आज़म न होता, क्योंकि यहाँ इमाम तो हैं जो शरीअत के मतलूबा नज़राने पेश करते हैं।


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