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प्रकाशितवाक्य 10:6 - सत्यवेदः। Sanskrit NT in Devanagari

6 अपरं स्वर्गाद् यस्य रवो मयाश्रावि स पुन र्मां सम्भाव्यावदत् त्वं गत्वा समुद्रमेदिन्योस्तिष्ठतो दूतस्य करात् तं विस्तीर्ण क्षुद्रग्रन्थं गृहाण, तेन मया दूतसमीपं गत्वा कथितं ग्रन्थो ऽसौ दीयतां।

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि


अधिकानि संस्करणानि

সত্যৱেদঃ। Sanskrit Bible (NT) in Assamese Script

6 অপৰং স্ৱৰ্গাদ্ যস্য ৰৱো মযাশ্ৰাৱি স পুন ৰ্মাং সম্ভাৱ্যাৱদৎ ৎৱং গৎৱা সমুদ্ৰমেদিন্যোস্তিষ্ঠতো দূতস্য কৰাৎ তং ৱিস্তীৰ্ণ ক্ষুদ্ৰগ্ৰন্থং গৃহাণ, তেন মযা দূতসমীপং গৎৱা কথিতং গ্ৰন্থো ঽসৌ দীযতাং|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

সত্যবেদঃ। Sanskrit Bible (NT) in Bengali Script

6 অপরং স্ৱর্গাদ্ যস্য রৱো মযাশ্রাৱি স পুন র্মাং সম্ভাৱ্যাৱদৎ ৎৱং গৎৱা সমুদ্রমেদিন্যোস্তিষ্ঠতো দূতস্য করাৎ তং ৱিস্তীর্ণ ক্ষুদ্রগ্রন্থং গৃহাণ, তেন মযা দূতসমীপং গৎৱা কথিতং গ্রন্থো ঽসৌ দীযতাং|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

သတျဝေဒး၊ Sanskrit Bible (NT) in Burmese Script

6 အပရံ သွရ္ဂာဒ် ယသျ ရဝေါ မယာၑြာဝိ သ ပုန ရ္မာံ သမ္ဘာဝျာဝဒတ် တွံ ဂတွာ သမုဒြမေဒိနျောသ္တိၐ္ဌတော ဒူတသျ ကရာတ် တံ ဝိသ္တီရ္ဏ က္ၐုဒြဂြန္ထံ ဂၖဟာဏ, တေန မယာ ဒူတသမီပံ ဂတွာ ကထိတံ ဂြန္ထော 'သော် ဒီယတာံ၊

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

satyavEdaH| Sanskrit Bible (NT) in Cologne Script

6 aparaM svargAd yasya ravO mayAzrAvi sa puna rmAM sambhAvyAvadat tvaM gatvA samudramEdinyOstiSThatO dUtasya karAt taM vistIrNa kSudragranthaM gRhANa, tEna mayA dUtasamIpaM gatvA kathitaM granthO 'sau dIyatAM|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

સત્યવેદઃ। Sanskrit Bible (NT) in Gujarati Script

6 અપરં સ્વર્ગાદ્ યસ્ય રવો મયાશ્રાવિ સ પુન ર્માં સમ્ભાવ્યાવદત્ ત્વં ગત્વા સમુદ્રમેદિન્યોસ્તિષ્ઠતો દૂતસ્ય કરાત્ તં વિસ્તીર્ણ ક્ષુદ્રગ્રન્થં ગૃહાણ, તેન મયા દૂતસમીપં ગત્વા કથિતં ગ્રન્થો ઽસૌ દીયતાં|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि




प्रकाशितवाक्य 10:6
14 अन्तरसन्दर्भाः  

अहम् अमरस्तथापि मृतवान् किन्तु पश्याहम् अनन्तकालं यावत् जीवामि। आमेन्। मृत्योः परलोकस्य च कुञ्जिका मम हस्तगताः।


तस्माद् आनन्दतु स्वर्गो हृष्यन्तां तन्निवामिनः। हा भूमिसागरौ तापो युवामेवाक्रमिष्यति। युवयोरवतीर्णो यत् शैतानो ऽतीव कापनः। अल्पो मे समयो ऽस्त्येतच्चापि तेनावगम्यते॥


ततः परं सप्तमो दूतः स्वकंसे यद्यद् अविद्यत तत् सर्व्वम् आकाशे ऽस्रावयत् तेन स्वर्गीयमन्दिरमध्यस्थसिंहासनात् महारवो ऽयं निर्गतः समाप्तिरभवदिति।


पन र्माम् अवदत् समाप्तं, अहं कः क्षश्च, अहम् आदिरन्तश्च यः पिपासति तस्मा अहं जीवनदायिप्रस्रवणस्य तोयं विनामूल्यं दास्यामि।


ते चतुर्विंशतिप्राचीना अपि तस्य सिंहासनोपविष्टस्यान्तिके प्रणिनत्य तम् अनन्तजीविनं प्रणमन्ति स्वीयकिरीटांश्च सिंहासनस्यान्तिके निक्षिप्य वदन्ति,


हे प्रभो ईश्वरास्माकं प्रभावं गौरवं बलं। त्वमेवार्हसि सम्प्राप्तुं यत् सर्व्वं ससृजे त्वया। तवाभिलाषतश्चैव सर्व्वं सम्भूय निर्म्ममे॥


इत्थं तैः प्राणिभिस्तस्यानन्तजीविनः सिंहासनोपविष्टस्य जनस्य प्रभावे गौरवे धन्यवादे च प्रकीर्त्तिते


ततस्तेषाम् एकैकस्मै शुभ्रः परिच्छदो ऽदायि वागियञ्चाकथ्यत यूयमल्पकालम् अर्थतो युष्माकं ये सहादासा भ्रातरो यूयमिव घानिष्यन्ते तेषां संख्या यावत् सम्पूर्णतां न गच्छति तावद् विरमत।


अस्मान् अनुसरणं कुर्वन्तु : १.

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