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मत्ती 5:44 - सत्यवेदः। Sanskrit NT in Devanagari

44 किन्त्वहं युष्मान् वदामि, यूयं रिपुव्वपि प्रेम कुरुत, ये च युष्मान् शपन्ते, तान, आशिषं वदत, ये च युष्मान् ऋृतीयन्ते, तेषां मङ्गलं कुरुत, ये च युष्मान् निन्दन्ति, ताडयन्ति च, तेषां कृते प्रार्थयध्वं।

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि


अधिकानि संस्करणानि

সত্যৱেদঃ। Sanskrit Bible (NT) in Assamese Script

44 কিন্ত্ৱহং যুষ্মান্ ৱদামি, যূযং ৰিপুৱ্ৱপি প্ৰেম কুৰুত, যে চ যুষ্মান্ শপন্তে, তান, আশিষং ৱদত, যে চ যুষ্মান্ ঋृতীযন্তে, তেষাং মঙ্গলং কুৰুত, যে চ যুষ্মান্ নিন্দন্তি, তাডযন্তি চ, তেষাং কৃতে প্ৰাৰ্থযধ্ৱং|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

সত্যবেদঃ। Sanskrit Bible (NT) in Bengali Script

44 কিন্ত্ৱহং যুষ্মান্ ৱদামি, যূযং রিপুৱ্ৱপি প্রেম কুরুত, যে চ যুষ্মান্ শপন্তে, তান, আশিষং ৱদত, যে চ যুষ্মান্ ঋृতীযন্তে, তেষাং মঙ্গলং কুরুত, যে চ যুষ্মান্ নিন্দন্তি, তাডযন্তি চ, তেষাং কৃতে প্রার্থযধ্ৱং|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

သတျဝေဒး၊ Sanskrit Bible (NT) in Burmese Script

44 ကိန္တွဟံ ယုၐ္မာန် ဝဒါမိ, ယူယံ ရိပုဝွပိ ပြေမ ကုရုတ, ယေ စ ယုၐ္မာန် ၑပန္တေ, တာန, အာၑိၐံ ဝဒတ, ယေ စ ယုၐ္မာန် ၒृတီယန္တေ, တေၐာံ မင်္ဂလံ ကုရုတ, ယေ စ ယုၐ္မာန် နိန္ဒန္တိ, တာဍယန္တိ စ, တေၐာံ ကၖတေ ပြာရ္ထယဓွံ၊

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

satyavEdaH| Sanskrit Bible (NT) in Cologne Script

44 kintvahaM yuSmAn vadAmi, yUyaM ripuvvapi prEma kuruta, yE ca yuSmAn zapantE, tAna, AziSaM vadata, yE ca yuSmAn RृtIyantE, tESAM maggalaM kuruta, yE ca yuSmAn nindanti, tAPayanti ca, tESAM kRtE prArthayadhvaM|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

સત્યવેદઃ। Sanskrit Bible (NT) in Gujarati Script

44 કિન્ત્વહં યુષ્માન્ વદામિ, યૂયં રિપુવ્વપિ પ્રેમ કુરુત, યે ચ યુષ્માન્ શપન્તે, તાન, આશિષં વદત, યે ચ યુષ્માન્ ઋृતીયન્તે, તેષાં મઙ્ગલં કુરુત, યે ચ યુષ્માન્ નિન્દન્તિ, તાડયન્તિ ચ, તેષાં કૃતે પ્રાર્થયધ્વં|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि




मत्ती 5:44
21 अन्तरसन्दर्भाः  

तदा यीशुरकथयत्, हे पितरेतान् क्षमस्व यत एते यत् कर्म्म कुर्व्वन्ति तन् न विदुः; पश्चात्ते गुटिकापातं कृत्वा तस्य वस्त्राणि विभज्य जगृहुः।


यूयं परस्परं प्रीयध्वम् अहं युष्मासु यथा प्रीये यूयमपि परस्परम् तथैव प्रीयध्वं, युष्मान् इमां नवीनाम् आज्ञाम् आदिशामि।


किन्तु पौलः प्रोच्चैस्तमाहूय कथितवान् पश्य वयं सर्व्वेऽत्रास्महे, त्वं निजप्राणहिंसां माकार्षीः।


तस्मात् स जानुनी पातयित्वा प्रोच्चैः शब्दं कृत्वा, हे प्रभे पापमेतद् एतेषु मा स्थापय, इत्युक्त्वा महानिद्रां प्राप्नोत्।


ये जना युष्मान् ताडयन्ति तान् आशिषं वदत शापम् अदत्त्वा दद्ध्वमाशिषम्।


अपरं कमपि प्रत्यनिष्टस्य फलम् अनिष्टं केनापि यन्न क्रियेत तदर्थं सावधाना भवत, किन्तु परस्परं सर्व्वान् मानवांश्च प्रति नित्यं हिताचारिणो भवत।


निन्दितो ऽपि सन् स प्रतिनिन्दां न कृतवान् दुःखं सहमानो ऽपि न भर्त्सितवान् किन्तु यथार्थविचारयितुः समीपे स्वं समर्पितवान्।


अनिष्टस्य परिशोधेनानिष्टं निन्दाया वा परिशोधेन निन्दां न कुर्व्वन्त आशिषं दत्त यतो यूयम् आशिरधिकारिणो भवितुमाहूता इति जानीथ।


अस्मान् अनुसरणं कुर्वन्तु : १.

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