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प्रेरिता 14:17 - सत्यवेदः। Sanskrit NT in Devanagari

17 तथापि आकाशात् तोयवर्षणेन नानाप्रकारशस्योत्पत्या च युष्माकं हितैषी सन् भक्ष्यैराननदेन च युष्माकम् अन्तःकरणानि तर्पयन् तानि दानानि निजसाक्षिस्वरूपाणि स्थपितवान्।

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि


अधिकानि संस्करणानि

সত্যৱেদঃ। Sanskrit Bible (NT) in Assamese Script

17 তথাপি আকাশাৎ তোযৱৰ্ষণেন নানাপ্ৰকাৰশস্যোৎপত্যা চ যুষ্মাকং হিতৈষী সন্ ভক্ষ্যৈৰাননদেন চ যুষ্মাকম্ অন্তঃকৰণানি তৰ্পযন্ তানি দানানি নিজসাক্ষিস্ৱৰূপাণি স্থপিতৱান্|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

সত্যবেদঃ। Sanskrit Bible (NT) in Bengali Script

17 তথাপি আকাশাৎ তোযৱর্ষণেন নানাপ্রকারশস্যোৎপত্যা চ যুষ্মাকং হিতৈষী সন্ ভক্ষ্যৈরাননদেন চ যুষ্মাকম্ অন্তঃকরণানি তর্পযন্ তানি দানানি নিজসাক্ষিস্ৱরূপাণি স্থপিতৱান্|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

သတျဝေဒး၊ Sanskrit Bible (NT) in Burmese Script

17 တထာပိ အာကာၑာတ် တောယဝရ္ၐဏေန နာနာပြကာရၑသျောတ္ပတျာ စ ယုၐ္မာကံ ဟိတဲၐီ သန် ဘက္ၐျဲရာနနဒေန စ ယုၐ္မာကမ် အန္တးကရဏာနိ တရ္ပယန် တာနိ ဒါနာနိ နိဇသာက္ၐိသွရူပါဏိ သ္ထပိတဝါန်၊

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

satyavEdaH| Sanskrit Bible (NT) in Cologne Script

17 tathApi AkAzAt tOyavarSaNEna nAnAprakArazasyOtpatyA ca yuSmAkaM hitaiSI san bhakSyairAnanadEna ca yuSmAkam antaHkaraNAni tarpayan tAni dAnAni nijasAkSisvarUpANi sthapitavAn|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि

સત્યવેદઃ। Sanskrit Bible (NT) in Gujarati Script

17 તથાપિ આકાશાત્ તોયવર્ષણેન નાનાપ્રકારશસ્યોત્પત્યા ચ યુષ્માકં હિતૈષી સન્ ભક્ષ્યૈરાનનદેન ચ યુષ્માકમ્ અન્તઃકરણાનિ તર્પયન્ તાનિ દાનાનિ નિજસાક્ષિસ્વરૂપાણિ સ્થપિતવાન્|

अध्यायं द्रष्टव्यम् प्रतिलिपि




प्रेरिता 14:17
35 अन्तरसन्दर्भाः  

तत्र यः सतामसताञ्चोपरि प्रभाकरम् उदाययति, तथा धार्म्मिकानामधार्म्मिकानाञ्चोपरि नीरं वर्षयति तादृशो यो युष्माकं स्वर्गस्थः पिता, यूयं तस्यैव सन्ताना भविष्यथ।


अतो यूयं रिपुष्वपि प्रीयध्वं, परहितं कुरुत च; पुनः प्राप्त्याशां त्यक्त्वा ऋणमर्पयत, तथा कृते युष्माकं महाफलं भविष्यति, यूयञ्च सर्व्वप्रधानस्य सन्ताना इति ख्यातिं प्राप्स्यथ, यतो युष्माकं पिता कृतघ्नानां दुर्व्टत्तानाञ्च हितमाचरति।


किन्तु तादृशायां कथायां कथितायामपि तयोः समीप उत्सर्जनात् लोकनिवहं प्रायेण निवर्त्तयितुं नाशक्नुताम्।


स भूमण्डले निवासार्थम् एकस्मात् शोणितात् सर्व्वान् मनुष्यान् सृष्ट्वा तेषां पूर्व्वनिरूपितसमयं वसतिसीमाञ्च निरचिनोत्;


इहलोके ये धनिनस्ते चित्तसमुन्नतिं चपले धने विश्वासञ्च न कुर्व्वतां किन्तु भोगार्थम् अस्मभ्यं प्रचुरत्वेन सर्व्वदाता


अस्मान् अनुसरणं कुर्वन्तु : १.

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