तदानीं यीशुस्तमवोचत्, दूरीभव प्रतारक, लिखितमिदम् आस्ते, "त्वया निजः प्रभुः परमेश्वरः प्रणम्यः केवलः स सेव्यश्च।"
मत्ती 6:24 - सत्यवेदः। Sanskrit NT in Devanagari कोपि मनुजो द्वौ प्रभू सेवितुं न शक्नोति, यस्माद् एकं संमन्य तदन्यं न सम्मन्यते, यद्वा एकत्र मनो निधाय तदन्यम् अवमन्यते; तथा यूयमपीश्वरं लक्ष्मीञ्चेत्युभे सेवितुं न शक्नुथ। अधिकानि संस्करणानिসত্যৱেদঃ। Sanskrit Bible (NT) in Assamese Script কোপি মনুজো দ্ৱৌ প্ৰভূ সেৱিতুং ন শক্নোতি, যস্মাদ্ একং সংমন্য তদন্যং ন সম্মন্যতে, যদ্ৱা একত্ৰ মনো নিধায তদন্যম্ অৱমন্যতে; তথা যূযমপীশ্ৱৰং লক্ষ্মীঞ্চেত্যুভে সেৱিতুং ন শক্নুথ| সত্যবেদঃ। Sanskrit Bible (NT) in Bengali Script কোপি মনুজো দ্ৱৌ প্রভূ সেৱিতুং ন শক্নোতি, যস্মাদ্ একং সংমন্য তদন্যং ন সম্মন্যতে, যদ্ৱা একত্র মনো নিধায তদন্যম্ অৱমন্যতে; তথা যূযমপীশ্ৱরং লক্ষ্মীঞ্চেত্যুভে সেৱিতুং ন শক্নুথ| သတျဝေဒး၊ Sanskrit Bible (NT) in Burmese Script ကောပိ မနုဇော ဒွေါ် ပြဘူ သေဝိတုံ န ၑက္နောတိ, ယသ္မာဒ် ဧကံ သံမနျ တဒနျံ န သမ္မနျတေ, ယဒွါ ဧကတြ မနော နိဓာယ တဒနျမ် အဝမနျတေ; တထာ ယူယမပီၑွရံ လက္ၐ္မီဉ္စေတျုဘေ သေဝိတုံ န ၑက္နုထ၊ satyavEdaH| Sanskrit Bible (NT) in Cologne Script kOpi manujO dvau prabhU sEvituM na zaknOti, yasmAd EkaM saMmanya tadanyaM na sammanyatE, yadvA Ekatra manO nidhAya tadanyam avamanyatE; tathA yUyamapIzvaraM lakSmInjcEtyubhE sEvituM na zaknutha| સત્યવેદઃ। Sanskrit Bible (NT) in Gujarati Script કોપિ મનુજો દ્વૌ પ્રભૂ સેવિતું ન શક્નોતિ, યસ્માદ્ એકં સંમન્ય તદન્યં ન સમ્મન્યતે, યદ્વા એકત્ર મનો નિધાય તદન્યમ્ અવમન્યતે; તથા યૂયમપીશ્વરં લક્ષ્મીઞ્ચેત્યુભે સેવિતું ન શક્નુથ| satyavedaH| Sanskrit Bible (NT) in Harvard-Kyoto Script kopi manujo dvau prabhU sevituM na zaknoti, yasmAd ekaM saMmanya tadanyaM na sammanyate, yadvA ekatra mano nidhAya tadanyam avamanyate; tathA yUyamapIzvaraM lakSmIJcetyubhe sevituM na zaknutha| |
तदानीं यीशुस्तमवोचत्, दूरीभव प्रतारक, लिखितमिदम् आस्ते, "त्वया निजः प्रभुः परमेश्वरः प्रणम्यः केवलः स सेव्यश्च।"
अतएव अयथार्थेन धनेन यदि यूयमविश्वास्या जातास्तर्हि सत्यं धनं युष्माकं करेषु कः समर्पयिष्यति?
कोपि दास उभौ प्रभू सेवितुं न शक्नोति, यत एकस्मिन् प्रीयमाणोऽन्यस्मिन्नप्रीयते यद्वा एकं जनं समादृत्य तदन्यं तुच्छीकरोति तद्वद् यूयमपि धनेश्वरौ सेवितुं न शक्नुथ।
अतो वदामि यूयमप्ययथार्थेन धनेन मित्राणि लभध्वं ततो युष्मासु पदभ्रष्टेष्वपि तानि चिरकालम् आश्रयं दास्यन्ति।
साम्प्रतं कमहम् अनुनयामि? ईश्वरं किंवा मानवान्? अहं किं मानुषेभ्यो रोचितुं यते? यद्यहम् इदानीमपि मानुषेभ्यो रुरुचिषेय तर्हि ख्रीष्टस्य परिचारको न भवामि।
इहलोके ये धनिनस्ते चित्तसमुन्नतिं चपले धने विश्वासञ्च न कुर्व्वतां किन्तु भोगार्थम् अस्मभ्यं प्रचुरत्वेन सर्व्वदाता
यतो दीमा ऐहिकसंसारम् ईहमानो मां परित्यज्य थिषलनीकीं गतवान् तथा क्रीष्कि र्गालातियां गतवान् तीतश्च दाल्मातियां गतवान्।
हे व्यभिचारिणो व्यभिचारिण्यश्च, संसारस्य यत् मैत्र्यं तद् ईश्वरस्य शात्रवमिति यूयं किं न जानीथ? अत एव यः कश्चित् संसारस्य मित्रं भवितुम् अभिलषति स एवेश्वरस्य शत्रु र्भवति।