1 एखे बाद हम धरती के चरहूँ कोनमा माहीं, चारठे स्वरगदूतन काहीं ठाढ़ देखेन, ऊँ पंचे धरती के चरहूँ हबा काहीं रोंके रहे हँय, जउने धरती, इआ कि समुंद्र, इआ कि कउनव बिरबन के ऊपर हबा न चलय।
अउर ऊँ तुरही के खुब तेज अबाज के साथ अपने स्वरगदूतन काहीं पठइहँय, अउर ऊँ पंचे अकास के एक छोर से दुसरे छोर तक, चारिव दिसन से उनखे चुने मनइन काहीं एकट्ठा करिहँय।”
अउर हम उन चारिव प्रानिन के बीच म से एकठे बोल इआ कहत सुनेन, कि “एक दिनार के सेर भर गोहूँ, अउर एक दिनार के तीन सेर जबा, पय जयतून के तेल अउर अंगूर के रस के नुकसान न किहा।”
अउर उनसे कहा ग, कि न धरती के चारा काहीं, न कउनव हरियरी काहीं, न कउनव बिरबा काहीं नुकसान पहुँचामय, केबल उन मनइन काहीं नुकसान पहुँचामय, जिनखे लिलारे माहीं परमातिमा के मुहर नहीं लगी आय।