पुस्तक-परिचय
नबी यहेजकेल का समय यरूशलेम के पतन (ईसवी पूर्व 586) के पहले एवं यरूशलेम के पतन के पश्चात् का है। जब सन् 597 ईसवी पूर्व में सम्राट नबूकदनेस्सर ने यरूशलेम नगर पर प्रथम आक्रमण किया था, तब यहेजकेल भी बंदी बनाए गए और बेबीलोन देश में निष्कासित लोगों के शिविर में लाए गए। अपने निष्कासन के पांचवें वर्ष में नबी ने व्यक्तिगत दर्शन में महिमामय परमेश्वर की उपस्थिति का अनुभव किया। पापाचारी नगर यरूशलेम के मंदिर को “पवित्र स्थान” मानने का कोई तात्पर्य नहीं रहा। तब से नबी अपने जाति-बंधु बंदियों को परमेश्वर का संदेश सुनाते रहे।
प्रस्तुत ग्रंथ के चार खण्ड किए जा सकते हैं :
पहला खण्ड− नबी यहेजकेल लोगों को परमेश्वर के आनेवाले प्रकोप की चेतावनी देते हैं, कि यरूशलेम का पतन हो जाएगा।
दूसरा खण्ड− परमेश्वर का वचन है कि वह उन राष्ट्रों को दण्ड देगा, जिन्होंने उसके निज लोगों को पथभ्रष्ट किया एवं उन पर अत्याचार किया है।
तीसरा खण्ड− यरूशलेम के पतन के पश्चात् इस्राएली राष्ट्र को सांत्वना दी गई और उससे प्रतिज्ञा की गई है कि उसका भविष्य समृद्धशाली होगा।
चौथा खण्ड− इस खण्ड में नबी यहेजकेल यरूशलेम के नव-मंदिर के विषय में दर्शन करते हैं कि उसका आदर्श स्वरूप कैसा होना चाहिए, जिससे इस्राएली कौम का गौरव सच्ची धार्मिकता पर पुन: स्थापित हो।
नबी यहेजकेल का परमेश्वर पर अटूट विश्वास था। वह कल्पनाशील व्यक्ति थे। उनके गम्भीर मनन-चिंतन एवं अन्त:दृष्टि उनके दर्शनों के बहुरूप में अभिव्यक्त हुई है।
उनकी नबूवतें प्रतीक घटनाओं के रूप में अथवा अभिनय के माध्यम से स्पष्ट की गई हैं। नबी यहेजकेल ने अपने सन्देशों में इस बात पर जोर दिया है कि लोग अपने हृदय को परिवर्तित करें। आत्मजागरण के लिए हृदय परिवर्तन आवश्यक है। हरेक व्यक्ति अपने-अपने पापों के लिए उत्तरदायी है। नबी ने पुनर्जीवित तथा शुद्धीकृत इस्राएली समाज की स्थापना की घोषणा की। इस प्रकार नबी यहेजकेल पूर्ण आशावादी थे। वह पुरोहित तथा नबी दोनों थे। उनका मन्दिर के प्रति लगाव था और वह मंदिर की पवित्रता को बनाए रखने के लिए चिन्तित थे।
विषय-वस्तु की रूपरेखा
चेतावनियाँ : 1:1−24:27
नबी यहेजकेल को आह्वान 1:1−3:27
यरूशलेम नगर नष्ट हो जाएगा 4:1-24:27
अन्य राष्ट्रों के विरुद्ध नबूवतें 25:1-32:32
आश्वासन : 33:1−39:29
प्रभु परमेश्वर की अपने लोगों के प्रति प्रतिज्ञा 33:1−37:28
गोग के विरुद्ध नबूवत 38:1−39:29
इस्राएली राष्ट्र तथा मन्दिर के गौरव की पुन:स्थापना का दर्शन 40:1−48:35