पुस्तक-परिचय
कनान देश में आक्रामक प्रवेश के बाद तथा इस्राएली राजवंश की स्थापना के पूर्व का “मध्यकाल” इस्राएली समाज के लिए अंधकार युग था। विभिन्न कुलों में एकीकृत शासन-प्रणाली स्थापित नहीं हो पायी थी। विभिन्न कुलों का परस्पर संबंध धार्मिक आधार पर किसी न किसी जनजातीय संगठन के रूप में उभड़ रहा था। अत: इस्राएली समाज में अव्यवस्था फैली हुई थी।
इस्राएली लोगों पर बाहर के लुटेरे हमला किया करते थे। वे उनके खेतों में आग लगा देते थे और धन-सम्पत्ति को लूट लेते थे। इस विषम स्थिति में अनेक इस्राएली अगुए नियुक्त हुए जिन्होंने न केवल अपने कुल के लोगों पर न्यायोचित शासन किया, बल्कि सेना-नायकों के रूप में विदेशी आक्रमणों से सम्पूर्ण कुल-संघ की रक्षा की। इस प्रकार ये सेना-नायक भी थे एवं न्यायी-शासक भी। इन वीर कुल-नायकों में शिमशोन सर्वाधिक विख्यात है, जिसका उल्लेख वीर-गाथा की शैली में प्रस्तुत ग्रंथ के 13-16 अध्यायों में हुआ है। ऐसे ही शासकों से सम्बन्धित अनेक घटनाएँ शासक ग्रंथ में उल्लिखित हैं।
प्रस्तुत पुस्तक की प्रमुख शिक्षा यह है कि बारह इस्राएली कुल अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रभु परमेश्वर पर पूर्णत: निर्भर रहे। दूसरी ओर जब-जब उनका भरोसा परमेश्वर से हटा तब-तब विपत्तियों का पहाड़ उन पर टूट पड़ा। किन्तु एक बात और : जब इस्राएली लोगों ने परमेश्वर पर भरोसा नहीं किया, तब भी परमेश्वर उनके पश्चात्ताप करने पर तथा उसके पास लौट आने पर उनकी रक्षा करता था।
विषय-वस्तु की रूपरेखा
यहोशुअ की मृत्यु तक की घटनाएं 1:1−2:10
इस्राएली कुलों के बारह शासक 2:11−16:31
अन्य घटनाएँ 17:1−21:25
(क) दान-कुल का स्थानान्तरण 17:1−18:31
(ख) बिन्यामिन-कुल का दुराचरण 19:1−21:25